विश्व स्तर पर शिक्षित लोग इस्लाम की उत्पत्ति और इसकी मान्यताओं के बारे में कुछ जानते हैं कि यह अरब दुनिया से निकला धर्म है। उनके अनुयायी इस्लाम के पैगंबर को रसूलुल्लाह मानते हैं, मस्जिदों में नमाज अदा करते हैं, आदि।
इसके ठीक विपरीत क्या किसी भी क्षेत्र के शिक्षित मुसलमानों के पास यहूदी धर्म के निर्माण उनकी परम्परा के बारे में थोड़ा सा भी ज्ञान, विचार या अवधारणा है?
इस बातचीत में मैंने यहूदियों के इतिहास या यूँ कहें कि उनकी कहानी को पेश करने की पूरी कोशिश की है।
यहूदी शब्द वास्तव में सात या आठ शताब्दी ईसा पूर्व यहूदिया नामक क्षेत्र से लिया गया है।
इस प्रकार वहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यहूदी कहा जाता था। यहाँ दाऊद का राज्य था और यरूशलेम का हैकल (मंदिर) इनके पूजा का महान स्थान था जिसे आज हैकले सुलैमानी के नाम से याद किया जाता है। लगभग सौ मील दूर बाबुल नामक (वर्तमान का इराक) में एक साम्राज्य हुआ करता था। 5 ईसा पूर्व में बेबीलोन की सेना ने यहूदिया पर आक्रमण किया और यरूशलेम पर कब्जा कर लिया। यह एक युद्धरत जनजाति थी जिसकी सेनाओं ने आक्रमण के दौरान टेंपल माउंट को नष्ट कर दिया और 10,000 यहूदियों को युद्ध बंदी बना लिया था और अपने साथ ले गए । इन यहूदियों ने अपनी नई मातृभूमि में अच्छी प्रगति की, लेकिन इनको येरुसेलम की याद सताती रही।
इसलिए उनके गणमान्य व्यक्तियों ने यरूशलेम में मंदिर के अधिकारियों को पत्र लिखकर उनसे यह पूछना चाहा कि वे यरूशलेम से दूर अपना जीवन कैसे व्यतीत करें।
उन्होंने जो उत्तर मिला वह ज्ञान और रहस्य से भरा था। यही वह रहस्य था जिसने यहूदियों को अल्पसंख्यक होते हुए भी समृद्ध से समृद्ध बनाया।
मंदिर से जो उत्तर मिला, वह यह था कि आप जिस देश में रहते हैं, उसके प्रति वफादार रहें, उसकी भलाई के लिए प्रार्थना करें। लेकिन साथ ही यरूशलेम के लिए प्रार्थना करें और यहूदी धर्म के संस्कारों पर टिके रहें, अपनी पहचान और संस्कृति से जुड़े रहें। यरूशलेम की ओर मुड़ें और पूजा करें और अपने घरों में उन परंपराओं और शिक्षाओं को जीवित रखें जिन्हें जीना सिखाया गया है।
अर्थात् बालकों का खतना करना, उनके व्यंजनों में कोषेर के नियमों का पालन करना, सूअर का मांस न खाना और प्रत्येक शनिवार को घर पर पूजा करना। शबात के सिद्धांत पर टिके रहें।
कुछ सदियों बाद, रोमनों ने फिलिस्तीन पर आक्रमण किया और इसे “पवित्र रोमन साम्राज्य” का एक प्रांत बना दिया। यह यीशु के जन्म के आस पास की बात है (रोमन इतिहासकारों द्वारा लिखित),
यहूदियों में एक व्यापक मान्यता थी कि दुनिया अब अपने अंत की ओर बढ़ रही है। “अन्तिम समय आ गया है। हमारा मसीहा एक नया डेविड है की शक्ल में आयेगा और
“हम यहूदियों को विदेशी आधिपत्य और गुलामी से मुक्त दिलाएगा”।
यीशु का ऐतिहासिक तथ्य यह है कि वह एक परोपकारी, एक संत एक उपदेशक थे। हिब्रू भाषा में, वह कोई धर्मिक पेशवा ( कोहेन) नहीं थे। इसके विपरीत यीशु ने लालच और हिंसा जैसी बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाया और यहूदी धार्मिक नेताओ की निंदा की।
इस प्रकार शीघ्र ही यीशु के शिष्य और अनुयायियों का एक दल बन गया। यहूदी पेशवाओं ने यीशु और उसके शिष्यों को खतरनाक विद्रोही कहा और आरोप लगाकर रोमन राज्यपाल पिलातुस के सामने पेश किया। रोमन शासकों ने विद्रोह के लिए एक मानक दंड निर्धारित किया था: किल ठोक कर सूली पर चढ़ा दिया जाना या सूली पर लटका दिया जाना।
उत्पीड़न या सूखे से बचने के लिए, बड़ी संख्या में यहूदी जनजाति फिलिस्तीन से निकल कर दूर दराज इलाक़े सुदूर क्षेत्रों में बस गए, जैसे कि कीव और दक्षिण-पश्चिमी भारत में कोरो मंडल का तट।
यहूदियों के तितर-बितर होने को लेकर दुनिया में कई आरोप हैं।
यहूदियों के किसी भी इतिहास में अंडालूसिया के महान पुनर्जागरण के इतिहास का उल्लेख किया जाना चाहिए। अंदालुसिया पर 8वीं शताब्दी से 1492 तक मुसलमानों का शासन था, जिसमें यहूदी व्यापारियों और बुद्धिजीवियों ने मुसलमानों और ईसाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और सत्ता में बने रहे। यह सबसे घातक वर्ष था जब विजेता स्पेनिश ईसाई, इसाबेला और फर्डिनेंड ने आदेश दिया कि सभी गैर – ईसाई धर्मांतरित करें या निर्वासित हो जाएं। इन बर्बर और दमनकारी ईसाइयों के हाथों मुसलमानों ने भी अपना नाम तकिया रखना शुरू कर दिया। कई बहादुर यहूदियों और मुसलमानों को राजमार्गों पर आग लगा दी गई।
कई स्पेनिश यहूदी बुद्धिजीवियों ने मोरक्को और मिस्र में शरण ली। इनमें मूसा इब्न मामून (1138-1204) को एक महान संत और तोराह और तल्मूड का महान विद्वान माना जाता है। अंडालूसिया से दूर नहीं, बल्कि सीरिया और लेबनान के तटीय क्षेत्रों से भी यहूदी यूरोप और अमेरिका में आकर बस गए।
मैं 2019 में तुर्की के अन्ताकिया में सिनी गैग पहुंचा – यह जगह मुझे प्रिय है क्योंकि सम्राट जूलियन इसी जगह पर पले बढ़े थे और यहां 363 ईस्वी में कत्ल कर दिया गया था। जूलियन ग्रीक परंपरा और सभ्यता के अंतिम संरक्षक थे। अपने युग की शुरुआत से कुछ दशक पहले कॉन्स्टेंटिनोपल के सम्राट ने ईसाई धर्म अपना लिया था।
325 सीई में निकिया की पहली परिषद बुलाई गई और यह माना जाता था कि ट्रिनिटी ईसाई धर्म का प्रतिनिधित्व करती है, अर्थात् पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। ये तीनों एक ही खुदा की तरफ़ इशारा करते हैं।
इस्लाम के पैगंबर इस धार्मिक निर्णय के 245 साल बाद 570 ईसवी में पैदा हुए और 632 ईसवी में उनकी मृत्यु हो गई।
ओसामा खालिदी द्वारा, क़मर फ़ारूक़ी द्वारा अनुवादित